Wednesday, July 12, 2017

दलगत राजनितिक आस्था और परायापन |

राजनीति हमें बांटती है, मिलाने से ज्यादा हमें बांटती है | जैसे ही आप किसी दल के समर्थक हो जाते हैं आपको उस दल के नारा और नेता को पूर्ण रूप से स्वीकार करना पड़ता है |
असली दिक्कत यह होती है कि अन्य दलों के शानदार विभूतियों के बारे में आप सार्वजनिक रुप से प्रशंसा के शब्द नहीं कह सकते क्योंकि आप एक दल की आस्था से बंध गए होते हैं |
मेरे जिले, मेरे राज्य और मेरे देश में बहुत से ऐसे नेता है जिनके दल अलग हैं, लेकिन वह मुझे पसंद हैं | पसंद करने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन वह पसंद हैं किंतु दलगत आस्था के कारण एक दूरी बनाए रखनी पड़ती है।

इस बात को ऐसे समझिये कि सचिन तेंदुलकर का फैन होने के बावजूद आपको विवियन रिचर्ड, इआन बोथम, इमरान खान, स्टीव वॉघ पसंद हो सकते हैं |

मेरे सांसद और मेरे विधायक दो अलग-अलग दलों से है व्यक्तिगत रूप से मुझे दोनों पसंद है लेकिन उनके दल अलग है और मेरी दलीय आस्था मुझे इनसे एक दूरी बनाए रखने को बाध्य करती है। बस यहीं पर दलगत राजनीति मुझे थोड़ा परेशान करती है।
मैं भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता हूं मेरे कई मित्र ऐसे हैं जो कांग्रेस बसपा अथवा सपा के सक्रिय सदस्य हैं और उनका भी यह मानना है कि मोदी जी के कामों को पसंद करने के बावजूद वह सार्वजनिक मंच से उनकी तारीफ नहीं कर सकते | इसी स्थिति से मैं भी दो-चार होता हूं | मेरे स्थानीय विधायक समाजवादी पार्टी के एक कद्दावर नेता है जोकि भारत भर में प्रसिद्ध है किंतु एक दूरी बनाकर रखना पड़ता है | यह बातें कभी कभी खलतीं हैं |