Wednesday, January 21, 2015

बन्दर और आदमी का सबक.

आज बंदरों का एक झुण्ड आगया अभी सुबह सुबह |
इन्हें समीप से विचरित करते देखना सम्मोहित करता है |
लेकिन प्रतिदिन तो इनका स्वागत करना भारी पड़ सकता है, रोज आये मेहमान किसे अच्छे लगते हैं भला |
मन हुआ कि कुछ नाश्ता करा दूं लेकिन फिर याद आया कि एक दिन की ये दरियादिली रोज की मुसीबत पैदा कर सकती है |
बंदरों में गजब की याददाश्त होती है, ये घर पहचान लेते हैं और फिर जहाँ से भोजन मिलने की आशा होती है वहां ये उत्पात भी मचाने लगते हैं |
अतः इन्हें यदि कुछ देना ही है तो आबादी के बाहर वाले मंदिर पर ही चढ़ावा के रूप में दिया जाये तो बेहतर |
तो प्यारे बंदरों मेरी ओर से तुम्हे तुम्हारा भोजन मिलेगा किन्तु मिलेगा यथोचित स्थान पर ही |

वैसे पिछले साल दिल्ली वालों ने भी कुछ बंदरों को घर पर बिठा लिया था... लगे नोचने, धरना करने, परेशान कर दिया... पर अबकी बार सबक ले चुके हैं दिल्ली के घरवाले |

समझ तो आप गए ही होंगे ||