Sunday, November 22, 2009

किसे डर लग रहा है सूचना के अधिकार कानून से ?


ऐसा लगता है कि जाने-माने बुद्धिजीवियों और सूचना के अधिकार के आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं की अपील को नज़रंदाज़ करते हुए यू पी ए सरकार ने सूचना के अधिकार कानून'2005 में संशोधन का मन बना लिया है. सरकार इस संशोधन के जरिये सूचना के अधिकार कानून से "फाइल नोटिंग" दिखाने का हक वापस लेने के अलावा जन सूचना अधिकारियों को "फालतू और तंग करनेवाले" सवालों को खारिज करने का अधिकार देना चाहती है. हालांकि इस फैसले का विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों और नागरिक संगठनो के एक प्रतिनिधिमंडल से केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव ने वायदा किया है कि इस मुद्दे पर अंतिम फैसला करने से पहले सरकार सबसे बात करेगी और सबकी आपत्तियों को सुनेगी लेकिन सरकार के रवैये से नहीं लगता है कि वह वास्तव में किसी को खासकर विरोधी स्वरों को सुनने के मूड में है. उसने मन बना लिया है और अब केवल दिखावे की मजबूरी में संशोधन की प्रक्रिया को पारदर्शी दिखाने का कोरम पूरा करना चाहती है. 

ऐसा मानने के पीछे ठोस वजहें हैं. असल में, जब से सूचना के अधिकार का कानून बना है, सत्तानशीं नेता और नौकरशाही उसके साथ सहज नहीं रहे हैं. इस कानून के बनने से पहले तक गोपनीयता के माहौल में काम करने के आदी अफसरों और नेताओं को शुरू से यह बहुत "परेशान और तंग" करनेवाला कानून लगता रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके पीछे वही औपनिवेशिक गोपनीयता की संस्कृति और मानसिकता जिम्मेदार रही है जो आज़ादी के 62 सालों बाद भी तनिक भी नहीं बदली है. यह मानसिकता सूचना का अधिकार कानून बनने के बावजूद यह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि अब एक आम आदमी भी उनसे न सिर्फ उनके कामकाज का ब्यौरा और हिसाब मांग सकता है बल्कि परदे के पीछे और चुपचाप फैसला करने का जमाना गया. उनसे उस फैसले तक पहुँचने की पूरी प्रक्रिया यानि फाइल नोटिंग दिखाने के लिए कहा जा सकता है जिसके जरिये एक-एक अधिकारी की जिम्मेदारी तय की जा सकती है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि नेता-नौकरशाही सूचना के अधिकार कानून और खासकर इस प्रावधान को अपने विशेषाधिकारों और अभी तक हासिल असीमित शक्तियों में कटौती के रूप में देखते रहे हैं. यही कारण है कि जन दबावों के बाद और खुद को प्रगतिशील दिखाने के लिए यू पी ए सरकार ने यह कानून तो बना दिया लेकिन कानून को ईमानदारी और उसकी सच्ची भावना के साथ लागू करने के बजाय उसकी राह में रोड़े अटकाने में लगी रही है. यहां तक कि कानून के लागू होने के दो सालों के अन्दर ही सरकार ने उसके दायरे से फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार को वापस लेने के लिए कानून में संशोधन करने की कोशिश की थी लेकिन जन संगठनो और बुद्धिजीवियों के भारी विरोध के बाद उसे अपने कदम वापस खीचने पड़े थे. इस मायने में, इस कानून में संशोधन के नए प्रयास को पिछले प्रयासों की निरंतरता में ही देखना चाहिए.
सवाल यह है कि केंद्र सरकार को सूचना के अधिकार कानून से क्या शिकायतें हैं? जिस कानून को लागू हुए अभी सिर्फ चार साल हुए हैं, उससे सरकार को ऐसी क्या दिक्कत हो रही है कि वह इस कानून के रचनाकारों और समर्थकों के विरोधों को अनदेखा करते हुए उसमे संशोधन के लिए उतारू है? दरअसल, नौकरशाही को घोषित तौर पर इस कानून से दो शिकायतें हैं. पहला, इस कानून का "दुरुपयोग" किया जा रहा है. कुछ निहित स्वार्थी तत्त्व इस कानून का सहारा लेकर फालतू, परेशान और तंग करनेवाले सवाल पूछ रहे हैं जिससे अधिकारियों को काम करने में बहुत दिक्कत हो रही है, उनका काफी समय ऐसे फालतू और बेकार सवालों का जवाब बनने में चला जा रहा है. यही नहीं, इसे विभागीय राजनीति में किसी अधिकारी के साथ हिसाब-किताब चुकता करने या बदला लेने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है.
दूसरी शिकायत यह है कि फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार देने से अधिकारियों को ईमानदारी से और बिना किसी भय के निर्णय लेने में मुश्किल हो रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके द्वारा फाइल पर की गई नोटिंग सार्वजनिक होने पर उन्हें निहित स्वार्थी तत्वों और बेईमानों का कोपभाजन बनना पड़ सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि ये दोनों शिकायतें बहुत कमजोर, तथ्यहीन, एक तरह की बहानेबाजी और गोपनीयता की संस्कृति को बनाये रखने की मांग हैं. जैसेकि खुद सूचना के अधिकार के लिए लड़नेवाली अरुणा रॉय और दूसरे बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में भी स्पष्ट किया है कि इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं हैं कि इस कानून का इस्तेमाल जानबूझकर "फालतू और तंग" करनेवाले सवाल पूछने के लिए किया जा रहा है और न ही इस बात के कोई प्रमाण हैं कि फाइल नोटिंग दिखाने के अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को काम करने में दिक्कत हो रही है.
उल्टे सच्चाई यह है कि इस अधिकार के कारण ईमानदार और निर्भीक अफसरों को बिना किसी अवांछित दबाव और भय के फैसला करने में सहूलियत हो रही है. वे उन नेताओं-मंत्रियों-अफसरों को इस कानून और खासकर इस प्रावधान का हवाला देकर उनकी इच्छा के अनुसार नोटिंग करने के दबाव से इंकार कर पा रहे हैं. यह प्रावधान ईमानदार और निर्भीक अफसरों के लिए बडी सुरक्षा साबित हो रहा है जबकि इसके कारण बेईमान और मनमानी करनेवाले अफसरों-नेताओं को मनमाने फैसले करने में जरूर परेशानी हो रही है क्योंकि अब कोई भी फाइल नोटिंग सार्वजनिक करके मनमाने-अवैधानिक-अनुचित फैसलों की जवाबदेही तय करवा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान से नौकरशाही को जिम्मेदार और जवाबदेह बनने के साथ निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सकता है.
रही बात "फालतू और तंग" करनेवाले सवालों को खारिज का अधिकार देने की तो इतना कहना ही काफी है कि अगर इस संशोधन को स्वीकार कर लिया गया तो इस कानून की मूल आत्मा की हत्या हो जायेगी क्योंकि इस प्रावधान का सहारा लेकर कोई भी जन सूचना अधिकारी किसी भी सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाले बताकर खारिज कर सकता है. आखिर यह कौन, कैसे और किस आधार पर तय करेगा कि कौन सा सवाल "फालतू और तंग" करनेवाला है? जाहिर है कि इस कानून के तहत पूछे जानेवाले सवालों से अपने भ्रष्टाचार, मनमानेपन, निक्कमेपन और गडबडियों की पोल खुलने के डर से घबराई नौकरशाही ऐसे हर सवाल को "फालतू और तंग" करनेवाला बताकर खारिज करने से नहीं चूकेगी, जिससे उसकी पोल खुलती हो. इसके बाद सूचना के अधिकार कानून में क्या बचेगा? क्या यू पी ए सरकार प्रस्तावित संशोधनों के जरिये इस कानून को ख़त्म करना और एक शोपीस भर बनाना चाहती है?

Saturday, November 7, 2009

न तो शासनादेश के मर्म को समझा गया और न ही इसे लागू किया गया ...

सर्व समाज के विकास के लिए वर्तमान बहुजन समाज पार्टी की सरकार वचनबद्ध है साथ ही राज्य की वंचित जनता को उनके अधिकारों एवं विकास के अवसरों में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए भी यह सरकार प्रयत्न करती रहती है। आरक्षण के माध्यम से काफ़ी कुछ हुआ है लेकिन इसका असर सरकारी नौकरियों में ही ज्यादा हुआ है जबकि सरकारी ठेकेदारी जैसे कुछ क्षेत्र हैं जिनसे वह तबका वंचित ही रहा क्योंकि इन क्षेत्रों में पूंजीपती अपना कब्जा जमाये रहते हैं। यही कुछ सोच कर सरकार ने नगर पालिकाओं के ठेकों में आरक्षण की शुरुआत छोटे ठेकों से की इस कदम का पार्टी के लोगो ने दिल से स्वागत किया और नगर पालिकाओं में भी इसे लागू किया जा चूका है लेकिन रामपुर की नगर पालिका में न तो इस शासनादेश के मर्म को समझा गया और न ही इसे लागू किया गया . कहने को तो पालिका पर बहुजन समाज पार्टी का बोलबाला है लेकिन वास्तव में समाजवादी पृष्ठभूमि से आये हुए पार्टी के ये मेहमान तो सिर्फ अपना वक़्त काट रहे हैं . यही नहीं मैंने बहुत पहले प्रशासन को भी लिखा है लेकिन प्रशासन की गति भी इस मामले में अज्ञात कारणों से सुस्त चल रही है . अबतो एक ही आशा है ऊपर भगवान का और नीचे बहिन जी का . वैसे थोडी शिकायत तो उनसे भी है जो अपने अधिकारों के लिए जागरूक तो हो गए हैं लेकिन सजग नहीं हैं... जय भीम ! जय भारत !!

Saturday, October 17, 2009

दीप पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें!

दीप पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें. 
उजाले का यह पर्व घोर अँधेरे वाले दिन अर्थात अमावस्या वाले दिन मनाया जाता है, है न यह एक और संघर्ष का प्रतीक ? जी हाँ यही सन्देश दिया है हमें हमारी संस्कृति ने कि विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए वही उचित समय है जब वह अपने चरम पर हो . तो आज तो बस त्यौहार की बात ... फिर बैठेंगे और अपनी मुहिम को आगे बढायेंगे . 
आपका : मुकेश पाठक 

Wednesday, September 30, 2009

छोटा हाथी

एक पुरानी कहावत है कि माले मुफ्त दिले बेरहम यानी मुफ्त की पायी चीज़ों परहम बेरहम होजाते हैं और उनकी क़द्र नही करते । उदहारण स्वरुप , अगर आप बाज़ार मेंकोई भिवस्तु खरीदते हैं तो हर तरह से उसके दाम का पता लगाते हैं और यह प्रयत्न करतेहैं कि जहाँ से भिमिले लेकिन दो पैसे कम में मिल जाए तो अच्छा । मगर नगर पालिका परिषद् रामपुर में तो उलटी गंगा ही बह रही है। चीज़ें बाजार मूल्य से कहीं ऊँची दरों पर खरीदी जाती है और पता नही कैसे और क्यों वहां बैठे जिम्मेदार लोग इस बात को नज़र-अंदाज़ किए बैठे हैं।
हद तो तब होती है जब वाहन जैसी वस्तुओं पर भी बाजार भाव से ज्यादा का मूल्य स्वीकृत कर लियाजाता है । पहले मुझे विश्वास नही हुआ लेकिन जब मैंने बाजार भाव से ऊँची खरीदारी करने के मामले में काम करना शुरू किया तो समझ में आया कि दर-असल टेंडर प्रक्रिया में ही जानबूझ कर ऐसे झोल निकलेजाते हैं कि भाव ज्यादा से ज्यादा आने का रास्ता बने। नियमानुसार टेंडर निकाले जाने से पहले व्यय अनुमान लिया जाता है और जितने की वस्तुबाजार में प्रचलित मूल्य की होती है उसी के आधार पर उसमें धरोहर राशि रखीजाती है इस प्रकार से यह सुनिश्चित हो जाता है की अनाप शनाप भाव नही आएंगे और उचित भाव पर खरीदारी कर ली जायेगी । जैसे यदि कोई वस्तु एक लाख रूपये की है और दो प्रतिशत से उसकी धरोहर राशि रखी जानी है तो दो हजार रुपये की राशिः रख कर यह सुनिश्चित किया जाता है की कोई भी निविदा दाता एक लाख से ऊपर का भाव नही देगा । लेकिन हाल ही में Tata ACE (जिसे आम बोलचाल में छोटा हाथी कहा जाता है ) की खरीदारी हेतु हुए टेंडर का अध्ययन करने पर समझ में आया ये सारा खेल कैसे खेला जाता है । जनाब चार छोटा हाथी खरीदना था। निविदा में धरोहर राशिः रखी गई पुरे चालीस हजार रूपये यानी रेट देने वालों को मौका दिया गया की वे चार छोटा हाथी नगर पालिका परिषद् रामपुर को बीस लाख तक में दे सकें यांनी एक छोटा हाथी पाँच लाख का। हमने अपनी आपत्ति दर्ज कराइ और टेंडर को निरस्त करने के लिए लिखा । खैर टेंडर पर खरीदारी तो किसी अन्य कारन से नही हुई लेकिन जानते हैं डीलर ने उसपर रेट क्या दिया था .... जी सुना है पाँच लाख के आसपास। ये वही डीलर था जिसने व्यक्तिगत तौर पर मुझे ईमेल करके रेट दिया था दो लाख पिच्चासी हजार और पाँच हजार की छूट अलग से ...
चलो ये भ्रष्टाचार तो हमने रोक लिया लेकिन जो हो चुका है उसका क्या होगा ... जी हाँ पिछले मार्च में इसी तरह से दो ट्रक ख़रीदे गए हैं जिसे अगर आप खरीदते तो छः सात लाख में मिलजाता मगर पालिका ने इसे ख़रीदा है .....(?????) ..... अब सब मैं ही बताऊँ या कुछ आप भी करेंगे ... सुचना के अधिकार का प्रयोग करें जनाब...
जय भीम! जय भारत !

Monday, September 28, 2009

दशहरा की हार्दिक शुभ कामनाएं !

दशहरा की हार्दिक शुभ कामनाएं . आज रावण मरेगा ... सत्य की विजय होगी... राम की जय होगी.   इसीलिए आज के दिन को विजयादशमी भी कहा जाता है. चूँकि यह प्रतीकात्मक होता है इसीलिए अगले साल रावण को फिर मारने की जरूरत होती है . भ्रस्टाचार के लिए भी यही सन्देश है कि तुम जबतक समूल समाप्त नहीं होगे हम तुम्हे मारते रहेंगे . कम से कम  मैं तो यही सोचता हूँ. भ्रस्टाचार से डरिये मत उसका सामना कीजिये तो देखिये कि वह कैसे भागता है. याद रखिये कि हर साल रावण का पुतला बहुत बड़ा होता है और राम मानव रूप में ही होते हैं फिर भी मरना रावण को ही पड़ता है...
जय श्री राम !

Tuesday, September 22, 2009

ईद मुबारक !

सभी क्षेत्र वासियों को ईद की दिली मुबारकबाद !
एक महीने के पवित्र रमजान के बाद ये दिन हासिल होता है जो की खुदा का एक तोहफा ही है . 
तो आज ज्यादा कुछ नहीं लिखूंगा क्योंकि सिमईओं कि खुशबू आने लगी है ...
ईद मुबारक !
:मुकेश पाठक

Sunday, September 20, 2009

एमर्जेंट है...

आप घर बनवाते हैं तो प्रवेश के लिए दरवाजा भी देते हैं और भले लोग घर आने के लिए दरवाजे का ही प्रयोग करते हैं ...हाँ कुछ लोग खिड़की से भी आजाते हैं लेकिन वह लोग या तो चोर होते हैं या असामाजिक होते हैं। लेकिन खिड़की कभी कभी इमर्जेंसी एंट्री या एग्जिट का भी काम करती है। ऐसी ही कुछ परिस्थितियों के लिए कुछ स्थानों पैर वैधानिक जटिलताओ से बचने के लिए एमेर्जेंट का प्राविधान किया जाता है जैसे कि नगर पालिकाओ में छोटी मोटी जरूरतों या खरीदारियों के लिए एमेर्जेंट आइटम्स कि खरीदारी हो सकती है । मूल भावना तो यही होती है कि जनता का काम नही रुके चाहे नियमों में थोडी ढील देनी पड़े (यानी खिड़की खोलनी पड़े ) ।
जानते हैं नगर पालिका परिषद् रामपुर में इस खिड़की का इस्तमाल भी खूब हुआ है ... पता लगा है कि एमेर्जेंट आइटम्स के नाम पर ऐसे ऐसे काम हुए हैं जो आराम से भी किए जा सकते थे यही नही इसी इमरजेंसी के नाम पर एक कामचलाऊ ई ओ से साठ लाख रुपयों कि निकासी करा ली गई।
वैसे सभासदों द्वारा इसका विरोध किया गया था और इसकी जांच चल रही है । मगर हम जैसे लोगों के लिए तो यह अच्छी स्थिति नही है क्योंकि अगर जांच में पालिका दोषी निकली तो लोग हमारी सरकार को बदनाम करेंगे औरभूल जायेंगे कि आख़िर ये मुद्दा नेक नियति से उठाया भी बहुजन समाज पार्टी के लोगों ने ही था। सुना है कि प्रभावित होने वाले लोग इसे पार्टी विरोधी गतिविधि करार देकर हमें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना चाहते हैं । ...हम क्या करें हमारे पास तो कोई इमर्जेंसी का रास्ता भी नही है। हाँ अगर हमने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया तो उनके लिए तो कई रास्ते हैं और नही तो वे अपने पुराने घर कि खिड़की का रास्ता पकड़ लेंगे... जय भीम ! जय भारत!!

Friday, September 18, 2009

रीवाईज कर लेते !

रामपुर के नालों को कभी गन्दा मत कहना ! मालुम है उनकी सफाई पर हर साल अभियान चला कर लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं । इसी लिए कह रहा हूँ साहेब गन्दा मत कहना !!
आपको बताएं की इस साल अस्सी नालों की सफाई के लिए अस्सी लाखसे ज्यादा का खर्च होने की स्वकृति बोर्ड की बैठक में रखा गया था । चूँकि एजेंडा तो एक या दो दिन पहले ही मिलता है इसलिए सोचने का ज्यादा मौका होता नही (या दिया नही जाता ) । तो प्रस्ताव पास होगये और नालों की सफाई शुरू होगई (?) ... और ख़तम भी होगई !
वह तो भला हो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का यानी मीडिया वालों का कि उन्होंने इस मुद्दे पर ध्यान खींचा कि ये खर्च गले से नही उतरने वाला है... खैर प्रशासन भी जागा और जांच बैठा दी गई...
मन में सवाल उठा कि पिछले वर्ष का खर्चा क्या रहा होगा ?? पता लगा की खर्च की स्वीकृति सत्तर लाख से कुछ कम की ही थी तो हमने सोचा की महंगाई बढ़ गई है अगर दस बारह लाख बढ़ गए हैं तो चलता है । लेकिन ... लेकिन जनाब पिछले वर्ष उतनी राशि से काम नही चला था बल्कि एस्टिमेट को रीवाइज करना पड़ा था और कुल भुगतान एक करोड़ बीस लाख का हुआ था। अब ऐसे में अगर पहले ही पता था की मामला करोड़ से ऊपर का होगा तो फिर अस्सी लाख का बजट क्यों दिया . हाँ समझा रीवाईज कर लेते ...

Sunday, September 13, 2009

चाय -चाय ! चाय तीन रूपया, ...रामपुर टैक्स एक्स्ट्रा !!

रामपुर में अगर आप चाय पी रहे हैं तो ध्यान रखना टैक्स एक्स्ट्रा है । क्या कहा तीन रुपये वाली चाय पी रहे हैं और वह भी सड़क किनारे ठेले पर ? ... तो क्या हुआ टैक्स तो देना ही होगा आख़िर आप नगर पालिका परिषद् रामपुर की सीमा में हैं और यहाँ पर चाय पर टैक्स है चाहे वह ठेले वाला हो या होटल वाला ....
अब आप कहेंगे की हमने तो कभी ऐसी बात नही देखीसुनी कि चाय पर टैक्स हो कहीं , रामपुर में भी कहीं नही देखी हमने चाय पर टैक्स । जी आप सही कह रहे हैं रामपुर में भी चाय पर टैक्स नही है... लेकिन मैं आपको बता दूँ कि अगर नगर पालिका परिषद् रामपुर द्वारा लाये गए प्रस्ताव को हम आँख बंद करके मान लेते तो आपको यहाँ चाय पर टैक्स देना ही होता जनाब क्योंकि किसी अधिकारी ने पालिका की आय बढ़ाने के लिए ये नुस्खा निकाला था और इसे एजेंडे में शामिल भी कर लिया गया था। वह तो वैधानिक बाध्यता के कारण एजेंडा तीन दिन पहले मिल गया था और मेरी नज़र उस पर पड़ी और अन्य सदस्यों के संज्ञान में भी ये बात आई तो वे सन्न रह गए। जानते हैं ये प्रस्ताव कब आया था ?? पिछले वर्ष नवम्बर में । तब , जब लोकसभा चुनाव सामने थे सरकार बहुजन समाज पार्टी की चल रही थी और पार्टी के संभावित उम्मीदवार ने घूमना भी शुरू कर दिया था। न पार्टी की फिकर न पब्लिक की । लेकिन अंत भला तो सब भला ... सदन में ये प्रस्ताव गिरा दिया गया और श्रेय गया विपक्ष को।
... एक चाय हो जाए ? ??

Thursday, September 10, 2009

जय भीम ! जय भारत !!

मैं बहुजन समाज पार्टी का एक कार्यकर्ता हूँ । और मुझे गर्व है। अपनी पार्टी को अनेक परिस्थितियों में मैंने देखा है , मैंने देखा है कि बार बार इसे साजिशन घेरा गया और भ्रम फैलाने की कोशिश की गई ... लेकिन हमारे पास तीन चीजे थीं - मान्यवर साहेब कांशीराम जी , बहिन मायावती जी और इस धरती की जनता । इसलिए चाहे सियासी पंडितों ने हमारी पार्टी को हाशिये पर डाल दिया हो या मीडिया ने हमें चूका हुआ मान लिया हो , हम पिछली विधान सभा चुनाव में पूर्ण बहुमत लेकर आए । आज बेशक हमारे साथ मान्यवर कांशीराम जी नही हैं लेकिन हम उन्हें अब अपने और करीब पाते हैं और बहिन जो तो अब पुरे देश कि आशा हैं ही, जनता आज भी हमारी ताक़त है।

आप जानते हैं दो वर्ष पूर्व मई में बहुजन समाज पार्टी कि सरकार बनी थी और बहन जी को करीब से जानने वाले समझते हैं कि उन्हें अपने कार्यकर्ताओं की याद हमेशा रहती है और वो समय आने पर उनसे जो काम लेना होता है उनको वैसी ही जिम्मेदारी देती हैं।
मुझे भी एक जिम्मेदारी दी गई , और मुझे नगर पालिका परिषद् रामपुर में नामित सदस्य बनाया गया। मैं अपनी सीमायें समझता हूँ और पार्टी और जनता के हित को भी समर्पित हूँ । इसी के मध्य मुझे पार्टी द्वारा दी गई जिम्मेदारी और लोकहित दोनों की अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है।