Tuesday, November 13, 2012

ग्रीन दीपावली और हम !


दीपावली अपने चरम पर है और धमाके तो पिछले एक हफ्ते से अपनी उपस्थिति दिखा रहे हैं। धमाकों के लिए जिन पटाखों का प्रयोग हम करते हैं उनके निर्माण में आज भी कोई ख़ास वैज्ञानिक प्रगति नहीं हुई है और वे आज भी उसी पुरानी विधि और सामग्रियों से निर्मित होते हैं।

इधर पिछले एक दशक से जहाँ पटाखों से होने वाले पर्यावरण नुक्सान सामने से दिखने लगे और चिंता और जागरूकता सामने आने लगीं वहीँ महंगाई बढ़ने के बावजूद पटाखों की बिक्री का वॉल्यूम बहुत बढ़ा है।

विद्यालयों और इन्टरनेट पर ग्रीन दीवाली की अवधारणा बलवती हो रही है तो वहीँ कुछ लोग इसे धार्मिक अंकुश के रूप में देखने लगे हैं।


पर्यावरण सदा से ही हिन्दू धर्मं में स्थान पाता रहा है . पूर्व काल में भी पर्यावरण के प्रति सतर्क करने वाले कई रीती-निति वर्णित हैं और हमारे रख-रखाव में भी उनका समायोजन रहता है। किन्तु दीप पर्व दीपावली कब धमाका पर्व बन गया ये पता ही नहीं चला।
एक हिन्दू धर्मावलंबी होते हुए भी मेरी यही कामना है कि पटाखों के प्रयोग को नियंत्रित करने में कोई हर्ज नहीं है।
अगर हम पटाखों के व्यग्तिगत रूप से न फोड़ कर कम्युनिटी, हाउसिंग सोसाइटीज, या मोहल्ले की समिति बनाकर खरीदें और फोड़ें (जैसा कि होलिका दहन में होता है ) तब भी काफी सुगमता और प्रयोग पर नियंत्रण रहेगा और दीपावली जैसे पर्व फिर व्यग्तिगत न होकर सामूहिक सहभागिता का अवसर बन जायेंगे। 

दीपावली  "दीप" पर्व है और उसको उसी रूप में स्थापित किया जाये तो बेहतर है।
शुभ दीपावली !

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