बचपन से लेकर हाल तक अक्सर समाचार पत्रों में एक हैडलाइन पढ़ा करते थे "आक्रोशित भीड़ ने अपराधी को मार डाला"।
उस 'हेडलाइन' के अंतर्गत मुख्य रूप से समाचार यही होता था कि चोरों, डकैतों अथवा समाज विरोधी काम करने वाले तत्वों से ग्रामीण इतने परेशान हो जाते थे कि उनके हत्थे चढ़ जाने पर इतना पीट दिया करते थे कि उन चोरों अथवा डकैतों अथवा तस्करों की मौत हो जाती थी।
पहले जब इस प्रकार की घटनाओं को पढ़ते थे तो 'भीड़' पर 'गुस्सा' नहीं आता था अपितु सिस्टम और पुलिस पर गुस्सा आता था कि यदि उन्होंने पहले ग्रामीणों अथवा जनता की बात पर ध्यान दे कर व्यवस्था में सुधार कर लिया होता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं घटती।
बल्कि हम में से बहुत से लोगों को तो यह लगता था कि भीड़ में शामिल कुछ लोग अब बेवजह ही कानून के शिकंजे में फंसेंगे जबकि यह काम तो पुलिस और कानून को कर देना चाहिए था ।
2014 के बाद 'आक्रोशित भीड़' द्वारा 'न्याय' कर देना अथवा आक्रोशित भीड़ द्वारा अपराधी को मार दिया जाना वाला हेडलाइन गायब हो गया और #आक्रोशित_भीड़ की जगह एक आयातित शब्द #मॉब_लिंचिंग का प्रयोग होने लग गया।
अब आप कहेंगे कि शब्द बदलने से क्या फर्क पड़ता है? तो मैं आपको बताता हूं कि प्रत्येक शब्द का अपना एक 'कलेवर' होता है| "आक्रोशित भीड़" जहां लोगों के #आक्रोश को व्यक्त करती थी वहीँ "मॉब लिंचिंग" भीड़ को दोषी के शेड में दिखा रही है।
आज मॉब लिंचिंग के जिन घटनाओं की 'अखबार बाजी' हो रही है उनके मूल में "आक्रोशित भीड़" को देखना हमने छोड़ दिया।
गौ तस्करों को यदि पुलिस समय रहते पकड़ ले तो आक्रोशित भीड़/ मॉब लिंचिंग की ज़रूरत ही ना पड़े और यह पूरी बहस यहीं पर बंद हो जाए।
लेकिन नए प्रचलित किए गए शब्द को छोड़ना कौन चाहता है??